जय गो माता
|| ॐ करणी ||
जय गुरुदाता

धेनु दर्शन फाउंडेशन

धेनु दर्शन - गौ संवर्धन

भारतीय गौवंश नस्ले

समुद्रमन्थन के दौरान इस धरती पर दिव्य गो की रत्न रूप में  उत्पत्ति हुई। भारतीय गोवंश को माता का दर्जा दिया गया है। इसलिए उन्हें “गौमाता” कहते है।
(महाभारत, अनुशासन पर्व, दानधर्म पर्व, अध्याय, 69/7)
 मातर: सर्वभूतानाम्,गाव: सर्वसुखप्रदा:।
– (महाभारत की कथा वैशम्पायन जी, परीक्षित के पुत्र जनमेञ्जय को सुना रहे हैं) भीष्म पितामह धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं कि- गाय माता सारे चराचर जगत की, संपूर्ण प्राणियों की माता है। एवं सारे संसार को सुख देने वाली है।

हमारे शास्त्रों में गाय को पूजनीय बताया गया है। इसीलिए हमारी माताएं बहनें रोटी बनाती है, तो सबसे पहले रोटी गायमाता को ही देती हैं, गाय माता का दूध अमृत तुल्य होता है |
पुराण मत के अनुसार, सागर मन्थन के समय पाँच दैवीय कामधेनु (नन्दा, सुभद्रा, सुरभि, सुशीला, बहुला) निकलीं। कामधेनु या सुरभि ब्रह्मा द्वारा ली गई। दिव्य वैदिक गौमाता ऋषि को दी गई ताकि उसके दिव्य अमृत पंचगव्य का उपयोग यज्ञ, आध्यात्मिक अनुष्ठानों और संपूर्ण मानवता के कल्याण के लिए किया जा सके।

यत्वगस्थिगतं पापं देहे तिष्ठïति मामके।
प्राशनात् पंचगव्यस्य दहत्व ग्रिरिवेन्धनम्॥ 
अर्थात – जो पाप मेरी हड्डियों में घुस गए हैं वे पंचगव्य के पान से उसी तरह नष्ट हो जाएं जैसे अग्नि सूखी लकड़ियों को जलाकर भस्म कर देती है!

भारतीय  वेदलक्षणा गाय माता की पहचान के मुख्य चिह्न निम्न हैं-
(१) सुन्दर कूबड़
(२) उनकी पीठ पर और गर्दन के नीचे त्वचा का झुकाव है, जिसे गलकंबल कहते है।
(३) नेत्रों में वात्सल्य 
(४) पृष्ठ भाग की गोलाकृति 
(५) सुन्दर सींग 
भारत में गाय की १०० से अधिक नस्लें थी, जो वर्तमान में घट कर 50 से कम रह गई है।  लाल सिन्धी, साहिवाल, गीर, देवनी, थारपारकर, राठी, आदि नस्लें भारत में दुधारू गोमाता की प्रमुख नस्लें हैं।

लोकोपयोगी दृष्टि में भारतीय गायमाता को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।
1. पहले वर्ग में वे गोमाता आती हैं, जो दूध तो खूब देती हैं, लेकिन उनकी पुंसंतान कृषि में कम या अनुपयोगी होती है। इस प्रकार की गौएँ दुग्ध प्रधान एकांगी नस्ल की हैं।
2. दूसरी गोमाताए वे हैं, जो दूध कम देती हैं, किंतु उनके बछड़े कृषि और गाड़ी खींचने के लिए विशेष उपयोगी होते हैं। इन्हें वत्स प्रधान एकांगी नस्ल कहते हैं। कुछ गोमाताए दूध भी प्रचुर देती हैं और उनके बछड़े भी कर्मठ होते हैं। ऐसी गोमाता को सर्वांगी नस्ल की गो कहते हैं। भारत की प्रमुख गो जातियाँ निम्नलिखित हैं:

1. साहीवाल जाति – बीकानेर, श्रीगंगानगर, पंजाब :-
साहीवाल गाय का मूल स्थान पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के साहीवाल ज़िले से माना जाता है। इन गोमाता का सिर चौड़ा उभरा हुआ, सींग छोटी और मोटी, तथा माथा मझोला होता है। भारत में ये राजस्थान के बीकानेर, श्रीगंगा

नगर, पंजाब में मांटगुमरी जिला और रावी नदी के आसपास लायलपुर, लोधरान, गंजीवार आदि स्थानों में पाई जाती है। ये भारत में कहीं भी रह सकती हैं। एक बार ब्याहने पर ये १० महीने तक दूध देती रहती हैं। दूध का परिमाण प्रतिदिन 10-20 लीटर प्रतिदिन होता है। इनके दूध में मक्खन का अंश पर्याप्त होता है। इसके दूध में वसा 4% से 6% पाई जाती है।

2. लाल सिंधी – पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक, तमिलनाडु :-
इनका मुख्य स्थान सिंध का कोहिस्तान क्षेत्र है। बिलोचिस्तान का केलसबेला इलाका भी इनके लिए प्रसिद्ध है। इन गोवंश का रंग बादामी या गेहुँआ, शरीर लंबा और चमड़ा मोटा होता है। ये दूसरी जलवायु में भी रह सकती हैं तथा इनमें रोगों से लड़ने की अद्भुत शक्ति होती है। संतानोत्पत्ति के बाद ये ३०० दिन के भीतर कम से कम २००० लीटर दूध देती हैं।


3. काँकरेज – राजस्थान :-

कच्छ की छोटी खाड़ी से दक्षिण-पूर्व का भूभाग, अर्थात् सिंध के दक्षिण-पश्चिम से अहमदाबाद और रधनपुरा तक का प्रदेश, काँकरेज गौमाताओं का मूल स्थान है। वैसे ये काठियावाड़, बड़ोदा और सूरत में भी मिलती हैं। ये सर्वांगी जाति की गौएँ हैं और इनकी माँग विदेशों में भी है। इनका रंग रुपहला भूरा, लोहिया भूरा या काला होता है। टाँगों में काले चिह्न तथा खुरों के ऊपरी भाग काले होते हैं। ये सिर उठाकर लंबे और सम कदम रखती हैं। चलते समय टाँगों को छोड़कर शेष शरीर निष्क्रिय प्रतीत होता है, जिससे इनकी चाल अटपटी मालूम पड़ती है। सवाई चाल से प्रसिद्ध गाय है। केंद्रीय गोवंश अनुसंधान संस्थान में गोवंश पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों के अनुसार कांकरेज गो की विधिवत सेवा किसानों की आमदनी कई गुना बढ़ा सकती है। राजस्थान में इनसे मिलती जुलती गौ सांचोरी के नाम से जानी जाती है।
 


4. मालवी – मध्य प्रदेश :-

ये गोमाता मध्यम दुधारू होतीं हैं तथा प्रति ब्यात दूध देने की क्षमता 627-1227 लीटर तक होती है। इनका शरीर ताकतवर और गठिला, रंग सफेद, भूरा या काला होता है तथा गर्दन कुछ काली होती है और इनकी गर्दन पर उभार होता है जिसे (hump) कहते हैं। गले के नीचे एक झालर लटकी रहती है जिसे गलकंबल कहते है। पूंछ लंबी और सुन्दर होती है जिसके अंतिम सिरा काले बालों से डंका रहता है। मालवी गो के बछड़े बड़े बलवान होते हैं जिससे बड़े होने पर गाड़ी खींचने और खेती के काम में लिया जाता है। ये मालवा क्षेत्र में उज्जैन, रतलाम, मंदसौर, राजगढ़, ब्यावरा, नरसिंहगढ़, शाजापुर के आस-पास पाई जाती हैं। इन गोवंश का मूल स्थान एम.पी हैं।

5. नागौरी – नागौर, जोधपुर, राजस्थान :- 

इनका प्राप्ति स्थान  नागौर और जोधपुर के आस-पास का प्रदेश है। ये गोमाता भी विशेष दुधारू नहीं होतीं, पर बैल बहुत उपयोगी होते है ब्याहने के बाद बहुत दिनों तक थोड़ा-थोड़ा दूध देती रहती हैं।

 

 

 

6. थारपारकर – राजस्थान :-
येगो अच्छी दुधारू होती हैं। इनका रंग खाकी, भूरा या सफेद होता है। कच्छ, जैसलमेर, जोधपुर, बीकानेर और सिंध का दक्षिण-पश्चिमी रेगिस्तान इनका प्राप्ति स्थान है। इनकी खुराक कम होती है। इसका दूध 10 से 16 लीटर प्रतिदिन तक होता है।

 
 
 
 
 
 

7. पंवार – उत्तर प्रदेश :-

पीलीभीत, पूरनपुर तहसील और खीरी इनका प्राप्तिस्थान है। इनका मुँह सँकरा और सींग सीधी तथा लंबी होती है। सींगों की लबाई १२-१८ इंच होती है। इनकी पूँछ लंबी होती है। ये स्वभाव से क्रोधी होती है और दूध कम देती हैं।

 
 
 


 
8. भगनारी – पंजाब :-
नाड़ी नदी का तटवर्ती प्रदेश इनका प्राप्तिस्थान है। ज्वार इनका प्रिय भोजन है। नाड़ी घास और उसकी रोटी बनाकर भी इन्हें खिलाई जाती है। ये गौएं दूध खूब देती हैं।
 
 
 
 
 
 

9. दज्जल – डेरागाजीखाँ, पंजाब :-
 

पंजाब के डेरागाजीखाँ जिले में पाई जाने वाली गो नस्ल हैं। ये दूध कम देती हैं।दजल या दज्जाल एक पाकिस्तानी नस्ल है । यह मध्य-पूर्वी पाकिस्तान में पंजाब प्रांत के डेरा गाजी खान जिले में उत्पन्न हुई और इसका नाम उस जिले के दजल शहर के नाम पर रखा गया है ।
 
 
 
 

10. गावलाव – मध्यप्रदेश :-  

दूध साधारण मात्रा में देती है। प्राप्तिस्थान सतपुड़ा की तराई, वर्धा, छिंदवाड़ा, नागपुर, सिवनी तथा बहियर है। इनका रंग सफेद और कद मझोला होता है। ये कान उठाकर चलती हैं।
 
 
 
 
 
 

11. हरियाणवी – हरियाणा :-

ये ८-१२ लीटर दूध प्रतिदिन देती हैं। गायों का रंग सफेद, मोतिया या हल्का भूरा होता हैं। ये ऊँचे कद और गठीले बदन की होती हैं तथा सिर उठाकर चलती हैं। इनका प्राप्ति स्थान रोहतक, हिसार, सिरसा, करनाल, गुडगाँव और जिंद है। भारत की पांच सबसे श्रेष्ठ नस्लों में हरियाणवी नस्ल आती है। यह अद्भुत है।

 
 
 
12. अंगोल या नीलोर – तमिलनाडु :-  
ये गो माताए दुधारू, सुंदर और मंथरगामिनी होती हैं। प्राप्तिस्थान तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, गुंटूर, नीलोर, बपटतला तथा सदनपल्ली है। ये चारा कम खाती हैं। इस जाति के बैल भारी बदन के और ताकतवर होते हैं। इनका शरीर लम्बा, किन्तु गर्दन छोटी होती है। यह प्रजाति सूखा चारा खाकर भी जीवन निर्वाह कर सकती है। इस नस्ल के ऊपर ब्राजील काम कर रहा है।
 

13. राठी – बीकानेर, श्रीगंगानगर :-

इन गो माता का मूल स्थान राजस्थान में बीकानेर, श्रीगंगानगर हैं। ये लाल-सफेद चकते वाली,काले-सफेद,लाल, भूरी,काली, आदि कई रंगों की होती है। ये खाती कम और दूध खूब देती हैं। ये प्रतिदिन का 10 से 20 लीटर तक दूध देती है। इस पर गो विश्वविद्यालय बीकानेर राजस्थान में रिसर्च भी काफी हुआ है। इसकी सबसे बड़ी खासियत, ये अपने आप को भारत के किसी भी कोने में ढाल लेती है।

 
 
 
 

14. गीर – गुजरात :-
ये प्रतिदिन 30 लीटर या इससे अधिक दूध देती हैं। इनका मूलस्थान काठियावाड़ का गीर जंगल है। राजस्थान में रैण्डा व अजमेरी के नाम से जाना जाता है। केंद्रीय गोवंश अनुसंधान संस्थान में गाय माता पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों के अनुसार गीर गो किसानों की आमदनी कई गुना बढ़ा सकती है।

 
 
 

15. देवनी – आंध्र प्रदेश, कर्नाटक :-
 

 देवनी गो दक्षिण आंध्र प्रदेश और हिंसोल में पाई जाती हैं। ये दूध खूब देती है। देवनी प्रजाति के गोवंश गिर नस्ल से मिलते-जुलते हैं। इस नस्ल के बैल अधिक भार ढोने की क्षमता रखते हैं। गायें दुधारू होती हैं।

 






16. नीमाड़ी – मध्य प्रदेश :-
नर्मदा नदी की घाटी इनका प्राप्तिस्थान है। ये गोए दुधारू होती हैं। नीमाड़ी प्रजाति के गोवंश काफी फुर्तीले होते हैं। इनके मुँह की बनावट गिर जाति की जैसी होती है। गाय के शरीर का रंग लाल होता है, जिस पर जगह-जगह सफेद धब्बे होते हैं। इस नस्ल की गाय दूध उत्पादन के मामले में अच्छी है।

 
 
 
 
 
17. अमृतमहल – कर्नाटक :-

यह नस्ल वत्सप्रधान, एकांगी नस्ल हैं। इस प्रजाति के गोवंश कर्नाटक राज्य के मैसूर जिले में पाये जाते हैं। इस नस्ल का रंग खाकी, मस्तक तथा गला काले रंग का, सिर और लम्बा, मुँह व नथुने कम चौड़े होते हैं। इस नस्ल के बैल मध्यम कद के और फुर्तीले होते हैं। गायें कम दूध देती है।
 
 
 


18. हल्लीकर – कर्नाटक :- 

यह नस्ल  वत्सप्रधान, एकांगी नस्ल हैं।भारत के कर्नाटक राज्य के मूल निवासी गौवंश की एक नस्ल है । इसका नाम हल्लीकर समुदाय से लिया गया है जो पारंपरिक रूप से अपने गौवंश पालन के लिए जाना जाता है। लंबे, सीधे और पीछे की ओर मुड़े हुए सींग, नर में बड़े कूबड़, मध्यम से लंबी ऊंचाई और शरीर का मध्यम आकार, और सफेद से भूरे और कभी-कभी काले रंग, इस नस्ल की विशेषताएं हैं। गौवंश की इस नस्ल के बैल अपनी ताकत और सहनशक्ति के लिए जाने जाते हैं, और मुख्य रूप से भार ढोने के उद्देश्यों के लिए उपयोग किए जाते हैं। इसे भारत में एक भार ढोने वाली नस्ल के रूप में वर्गीकृत किया गया है। हल्लीकर को भार ढोने वाली नस्ल के रूप में वर्गीकृत किया गया है क्योंकि दक्षिणी भारत में, गाय का उपयोग खेतों की जुताई के लिए किया जाता था। यह दुनिया की एकमात्र ऐसी नस्ल है जिसमें बैल और गाय दोनों का इस्तेमाल हल चलाने में किया जा सकता है। हल्लीकर दिन में 18 से 20 घंटे काम कर सकता है और 2 से 3 लीटर दूध देता है।



19. बरगूर – तमिलनाडु :-

यह नस्ल वत्सप्रधान, एकांगी नस्ल हैं। बरगूर प्रजाति के गोवंश तमिलनाडु के बरगुर नामक पहाड़ी क्षेत्र में पाये गये थे। इस जाति की गायों का सिर लम्बा, पूँछ छोटी व मस्तक उभरा हुआ होता है। बैल काफी तेज चलते हैं। गायों की दूध देने की मात्रा कम होती है।
 
 
 
 
20. आलमवादी – कर्नाटक :-
यह नस्ल  वत्सप्रधान, एकांगी नस्ल हैं। इस प्रजाति के गोवंश कर्नाटक राज्य में पाये जाते हैं। इनका मुँह लम्बा और कम चौड़ा होता है तथा सींग लम्बे होते हैं।
 
 
 
 
 
 
21. कंगायम – तमिलनाडु :-

यह अच्छा दूध देनेवाली गो नस्ल हैं। इस प्रजाति के गोवंश काफी फुतीले होते है। इस जाति के गोवंश कोयम्बटूर के दक्षिणी इलाकों में पाये जाते हैं। दूध कम देने के बावजूद भी यह गाय 10-12 सालों तक दूध देती है।
 
 


 
 
22. कृष्णवल्ली – महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश :-  
यह अच्छा दूध देनेवाली गो नस्ल हैं। कृष्णावेली प्रजाति के गोवंश महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश में पाये जाते हैं। इनके मुँह बड़ा, सींग और पूँछ छोटी होती है। इन गायों से भी अच्छा दूध उत्पादन होता है।
 
 
 

23. बद्री – उत्तराखंड :-

यह हिमालय में पाई जाने वाली उत्तम नस्ल है । बद्री उत्तराखंड की दोहरे उद्देश्य वाली नस्ल है जिसे “पहाड़ी” के रूप में भी जाना जाता है; क्योंकि वे मुख्य रूप से उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में पाए जाते हैं। प्रजनन क्षेत्र में उत्तराखंड के नैनीताल, अल्मोड़ा, बागेश्वर, पिथौरागढ़, चंपावत, पौड़ी गढ़वाल, टिहरी गढ़वाल, रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी और चमोली जिले शामिल हैं। जानवर पहाड़ी इलाकों और जलवायु परिस्थितियों के अनुकूल होते हैं और चलते समय संतुलित चाल रखते हैं। सामान्य रंग काला, भूरा या ग्रे होता है, लेकिन मादाओं में शायद ही कभी सफेद रंग देखा जाता है। सींग ऊपर और अंदर की ओर मुड़े होते हैं। बद्री छोटे आकार का, सक्रिय और पक्के पैरों वाला पशु है। सीधा माथा, प्रमुख सिर, मध्यम से बड़ा कूबड़। थन छोटा और शरीर के साथ चिपका हुआ। बद्री को मुख्य रूप से बैल शक्ति, दूध और खाद के लिए पाला जाता है। बद्री गाय की प्रति ब्यांत औसत दूध उपज 632 किलोग्राम (547 से 657 किलोग्राम तक) है, तथा औसत दूध वसा 4% (3.6 से 4.4% तक) है।
 

24. खिल्लारी- महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश :-
यह महाराष्ट्र में पाई जाने वाली उत्तम बैल प्रदाता नस्ल है। इस प्रजाति के गोवंश का रंग खाकी, सिर बड़ा, सींग लम्बी और पूँछ छोटी होती है। इनका गलंकबल काफी बड़ा होता है। खिल्लारी प्रजाति के बैल काफी शक्तिशाली होते हैं, लेकिन गायों मे दूध देने की क्षमता कम होती है। यह नस्ल महाराष्ट्र तथा सतपुड़ा (म.प्र.) क्षेत्रों में पायी जाती है।

 
25. पुंगनूर – आंध्र प्रदेश :-

पुंगनूर दक्षिणी भारत में आंध्रप्रदेश के चित्तूर जिले की एक पारंपरिक नस्ल है। नस्ल का नाम पुंगनूर के राजाओं के साथ अतीत में इसके जुड़ाव से या शहर के नाम से लिया गया हो सकता है। इसे मुख्य रूप से पहाड़ी इलाकों में पाला जाता है, जहाँ तक की ऊँचाई पर 1000 मीटर की ऊँचाई पर है। समुद्र तल से 1500 मीटर ऊपर। यह अतीत में एक लुप्तप्राय नस्ल रही है । 1950 के दशक में एक सरकारी संरक्षण झुंड बनाने का प्रयास किया गया था, लेकिन सफलता नहीं मिली। यह ज़ेबुइन की सबसे छोटी नस्लों में से एक है,  बैल कुछ खड़े होते हैं 107 सेमी और वजन लगभग 240 किलो, गायों का औसत ऊंचाई 97 सेमी और वजन 170 किलोग्राम।  कोट सफेद, ग्रे, भूरा, लाल या कभी-कभी काला हो सकता है। 94 सींग छोटे और अर्धचंद्राकार होते हैं।
 
 

26. खेरीगढ़ –  उत्तर प्रदेश :-
इस प्रजाति के गोवंश खेरीगढ़ क्षेत्र में पाये जाते हैं। गायों के शरीर का रंग सफेद तथा मुँह होता है। इनकी सींग बड़ी होती है। इस नस्ल के बैल फुर्तीले होते हैं और मैदानों में स्वच्छन्द रूप से चरने से स्वस्थ एवं प्रसन्न रहते हैं। इस नस्ल की गायें कम दूध देती है।

 
 
27. वेचूर प्रजाति – केरल :-

वेचूर प्रजाति के गोवंश पर रोगों का कम से कम प्रभाव पड़ता है। इस जाति के गोवंश कद में छोटे होते हैं। इस नस्ल की गायों के दूध में सर्वाधिक औषधीय गुण होते हैं इस जाति के गोवंश को बकरी से भी आधे खर्च में पाला जा सकता है।
 
 
 
28. डांगी प्रजाति – महाराष्ट्र :-
इस प्रजाति के गोवंश अहमद नगर, नासिक और अंग्स क्षेत्र में पाये जाते हैं। गायों का रंग लाल, काला व सफेद होता है। गायें कम दूध देती हैं। इसकी उत्पत्ति महाराष्ट्र राज्य के नासिक और अहमदनगर जिलों के डांग के पहाड़ी इलाकों में हुई है। इस नस्ल का शरीर मध्यम से बड़े आकार का होता है। वे एक बहुत अच्छी ड्राफ्ट नस्ल हैं और भारी वर्षा वाले क्षेत्रों में अपनी अनुकूलता के लिए जानी जाती हैं। इस नस्ल की त्वचा एक तेल तत्व का स्राव करती है जो उन्हें भारी बारिश को सहन करने में सक्षम बनाता है।
 
 

29. बचौर प्रजाति – बिहार :-

इस नस्ल के गोवंश बिहार प्रांत के तहत सीतामढ़ी जिले के बचौर एवं कोइलपुर परगनां में पाये जाते हैं। इस जाति के बैलों का प्रयोग खेतों में किया जाता है। इनका रंग खाकी, ललाट चौड़ा, आंखें बड़ी-बड़ी और कान लटकते हुए होते हैं।

 
 
 
 
 
30. केनवारिया (केनकथा) – मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश :-
इस प्रजाति के गोवंश बांदा जिला (म.प्र.) के केन नदी के तट पर पाये जाते हैं। इनके सींग काँकरेज जाति के गोवंश जैसी होती हैं। गायें कम दूध देती हैं।
केनकथा का मूल स्थान उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश है और इस नस्ल को केनवारिया के नाम से भी जाता है। इनका आकार छोटा होता है इनका सिर छोटा और चौड़ा, कमर सीधी और कण लटके हुए होते है इस नस्ल की औसतन लंबाई 103 से. मी होती है इस नस्ल का औसतन भार 350 किलो और मादा का 300 किलो होता है।
 
 
31. नायरी नस्ल – सिरोही :-

नारी गाय या सिरोही गाय गुजरात राज्य के बनासकांठा और साबरकांठा से उत्पन्न गौवंश की एक शुद्ध भारतीय नस्ल है. नारी नाम ‘नार’ शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ है पहाड़. वहीं नारी या सिरोही नस्ल के गौवंश ज्यादातर गुजरात के बनासकांठा और साबरकांठा, जबकि राजस्थान के पाली और सिरोही जिले के आसपास के क्षेत्रों में पाए जाते हैं. इसके अलावा, नारी मवेशी दोहरे उद्देश्य वाली गौवंश नस्ल है यानी गायों को दूध उत्पादन के लिए पाला जाता है, जबकि बैलों को खेतों की जुताई और भारवाहक के लिए पाला जाता है. इस नस्ल के गौवंश काफी मजबूत होते हैं. दरअसल, इस नस्ल की गायों को जंगल में जानवरों से लड़ते और अपने बछड़ो को बचाते हुए देखा जाता है. कई बार अपने मालिक को वन्यजीव से मुठभेड़ में फंसा देख, यह वन्य जीव पर टूट पड़ती है. यदि इन पर वन्य जीव हमला करते हैं तो यह आवाज निकाल कर अन्य गायों को अपने पास बुला लेती है, जबकि सामान्यतः अन्य गायों की नस्लें दूर भाग जाती हैं.
अगर दूध उत्पादन क्षमता की बात करें तो नारी गाय या सिरोही गाय आमतौर पर 8 से 10 लीटर दूध रोजाना देती हैं. एनडीडीबी के अनुसार, नारी या सिरोही नस्ल की गायें एक ब्यान्त में औसतन 1647 लीटर तक दूध देती है, जबकि न्यूनतम 1118 लीटर और अधिकतम 2222 लीटर तक दूध देती है